द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
चिति सम्वाद: साहित्य और कलाओं में चिति विमर्श विषय पर आयोजित द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का मूल उद्देश्य साहित्य, कला और लोक-जनजातीय परंपराओं में चिति (सामूहिक चेतना) की अभिव्यक्ति, सांस्कृतिक धरोहर संरक्षण, ज्ञान के हस्तांतरण एवं समाजीकरण की प्रक्रिया तथा चिति में समयानुसार हुए परिवर्तनों और उनके सामाजिक प्रभावों का विश्लेषण कर समाज के विकास में उनकी भूमिका को समझना है। ‘चिति’ का अर्थ है चेतना। सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल ‘चिति’ को अंग्रेजी के साइकी (Psyche)या मानस को इसका समानार्थी मानते हैं। साधारण भाषा में चिति को राष्ट्र की सामूहिक चेतना (Collective Consciousness of the Nation)के रूप में समझ सकते हैं। ‘चिति’ भौतिक या स्थूल चेतना से भिन्न स्तर की अवस्था है। इसका विकास सहस्राब्दियों में होता है। जीवन के अनुभव, अगणित अनुसन्धान और अनुकूलन की प्रक्रिया से संचरण के उपरांत ही किसी समाज या मानव समुदाय की ‘चिति’ का विकास होता है। उसे अनुभव होता रहता है कि जो कुछ अब तक प्राप्त हुआ है उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण कोई पदार्थ है जिसकी उसे खोज है। वह महत्वपूर्ण पदार्थ क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इसके लिए निरंतर प्रयास किया गया होगा। उन प्रयासों ने मानवीय चेतना को जिस उच्चतर स्थिति में प्रतिष्ठित किया, चेतना का यही रूप ‘चिति’ के नाम से अभिहित है। Read More